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क्या जोशी मठ प्रकरण किसी भयानक साजिश का हिस्सा है,,-छत्तीसगढ़ बनाम उत्तराखंड

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‘माओवाद’- छत्तीसगढ़ बनाम उत्तराखंड

पिछले कई दशकों से देश की विभिन्न सरकारें आदिवासी बहुल राज्यों या इलाकों में, विशेषकर आम गरीब आदिवासी उनके इलाकों में जंगल काटने, हरी-भरी जमीन को रौंद कर उसमें से बहुमूल्य खनिजों का दोहन करने के लिए बड़ी बड़ी परियोजनाएं लाती रही हैं। आदिवासी समाज के लोग जब इन विनाशकारी योजनाओं का विरोध करते थे तो उन्हें “विकास विरोधी”, “पिछड़ी मानसिकता” से ग्रस्त तथा कई बार “माओवादी” (या नक्सलवादी/आतंकवादी) भी कह कर देश के ‘सभ्य, पढे-लिखे’ लोगों द्वारा उनका मज़ाक बनाया जाता था तथा ‘ज़रूरत पड़ने पर’ पुलिस, सी॰आर॰पी॰एफ॰, एस॰टी॰एफ॰, आर्मी आदि को लगा कर उनका बड़े पैमाने पर “नरसंहार” भी किया जाता रहा है।

पिछले 70 वर्षों में अब तक झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों के आदिवासी इलाकों में दसियों हज़ार आदिवासी स्त्री-पुरुषों को “माओवादी/आतंकवादी” की संज्ञा दे कर मौत के घाट उतारा जा चुका है। ऐसे ही फर्जी आरोपों में हजारों आदिवासी जेलों में आज भी बंद हैं। लाखों एकड़ ज़मीन से जंगल को खोद कर उसका हर तरह से दोहन किया जा चुका है। जिन जंगलों, पहाड़ों को आदिवासी समाज हजारों वर्षों से पूजता चला आ रहा है, उन्हीं को सरकारों-पूँजीपतियों के निर्मम गठजोड़ द्वारा अपने पैरों तले कुचला जाता रहा है। उसी ज़मीन पर पिछले हजारों वर्षों से रहने वाले आदिवासी समाज को उस ज़मीन के अकूत दोहन से एक फीसदी भी लाभ नहीं मिला है। सारा धन सरकारों, ठेकेदारों, पूँजीपतियों, विदेशी कंपनियों सरकारी कर्मचारियों की तिजोरी का हिस्सा बन चुका है जबकि आदिवासी बड़े पैमाने पर आज भी भुखमरी, बदहाली, गरीबी, अशिक्षा, अन्याय, शोषण का शिकार बना हुआ ही नज़र आता है।

अजीब विडम्बना है, या कहें कि समय का अजीब चक्र है कि अभी कुछ समय पूर्व तक आदिवासी समाज को पिछड़ा व “विकास-विरोधी” बताने वाला “सवर्ण” मीडिया, ‘विकास’ के गीत गाने वाले शहरी, मध्यवर्गीय, उच्च-शिक्षित, उच्चवर्णीय ‘सभ्य समाज’ उत्तराखंड (जोशीमठ आदि) के मामले में घोर “विकास विरोधी” एवं ‘पर्यावरणप्रेमी’ बन कर सामने आ रहे हैं। वो सड़कों पर उतर उतर कर केंद्र व राज्य सरकार के “विकास के इस महायज्ञ” को जन-विरोधी एवं पर्यावरण विरोधी बता रहे हैं।

क्या केंद्र कि मोदी सरकार उत्तराखंड के इन ‘विकास-विरोधियों’ को भी “नक्सली/माओवादी” आदि विशेषणों से चिन्हित करते हुये इन्हें (झारखंड, छत्तीसगढ़ की तर्ज पर) पुलिस, अर्ध-सैनिक बलों के हवाले करेगी, ये एक बड़ा प्रश्न है। क्या देश का ‘उच्च-वर्णीय, उच्च-वर्गीय’ (हिन्दू) समाज क्या छत्तीसगढ़/झारखंड के संदर्भ में ‘विकास-प्रेमी’ होने की अपनी चिर-परिचित अंदाज़ को तिलांजलि दे कर क्या अब उत्तराखंड के संदर्भ में अचानक ही ‘पर्यावरण-प्रेमी’ हो जाएगा…..??

क्या ‘हिन्दू-हृदय सम्राट’ मोदी जी को झारखंड, छत्तीसगढ़ ही की तर्ज पर उत्तराखंड के इन (संभावित) ‘माओवादियों’ के खिलाफ सख्त रवैया अपनाते हुये पुलिस, पैरामिलिट्री फोर्सेस, आर्मी आदि को तैनात करके इन तमाम ‘विकास’ कार्यों को देश हित में जल्द से जल्द पूरा करने के लिए आदेश पारित करेंगे? वैसे जिस तरीके से इस पूरे “उत्तराखंड खण्ड-खण्ड” प्रकरण (जोशीमठ इत्यादि) पर मोदी सरकार द्वारा मीडिया तथा अन्य संबन्धित सरकारी संस्थानों द्वारा “ महत्वपूर्ण सूचनाओं” के प्रसारण पर गला घोंटने वाले आदेश गत सप्ताह पारित किए गए हैं उससे साफ नज़र आता है कि सरकार की “मंशा” क्या है।

मुझे उम्मीद है कि छत्तीसगढ़, झारखंड तथा अन्य प्रदेशों के आदिवासियों की दशकों पुरानी व्यथा अब इस देश के पढे लिखे ‘सभ्य’ लोगों को अब समझ में आने लगी होगी।

समय की चक्की बहुत बुरा (और बारीक) पीसती है…..!!


प्रमोद कुरील (पूर्व सांसद-राज्य सभा)
राष्ट्रीय अध्यक्ष: बहुजन नेशनल पार्टी
नयी दिल्ली।
17-01-23

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