सरकारी भूमि पर 30 वर्षों से अधिक समय से रह रही जनता को मलकाना हक क्यों नहीं ? मुरैना जिले के समस्त नगर कस्बा व गांव में गरीबों के आधिपत्य में सरकारी जमीन पर बसी बस्तियों को मालिकाना हक देने की मांग उठनी चाहिए । इस संबंध में मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव और राजस्व सचिव को अवगत कराना चाहिए और सरकार को चेताया जाना चाहिए कि मुरैना जिले के नगर कस्बा और गांव की बस्तियों को उनकी वसाहट पर मालिकाना हक देने की योजना उनके द्वारा लागू करनी चाहिए । “क्षितिज चंद्र बोस बनाम नगर निगम सांची” के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय का 1981 में ही फैसला आ चुका है जिसमें कहा गया है कि सरकारी भूमि पर 30 वर्षों तक लगातार किसी का कब्जा है और सरकार द्वारा कब्जा नहीं हटाया गया है तो प्रतिकूल कब्जा (एडवर्स पजेशन) के सिद्धांत के अनुसार कब्जाधारी उस जमीन का मालिक माना जाएगा । सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय कानून होता है और पूरे देश के न्यायालय और जनता के लिए बाध्यकारी होता है । तथापि किसी सरकार ने उसमें अभी तक हस्तक्षेप नहीं किया है, किसी प्रकार चुनौती नहीं दी है और वह आज तक कानून के एक भाग के रूप में अस्तित्व में बना हुआ है । फिर भी सरकार ने जनता का उसका हक प्रदान नहीं किया है । अब चूंकि सरकार को चाहिए कि ऐसे व्यक्तियों को जमीन का मालिकाना हक दे जो 30 वर्षों से अधिक समय से उस भूमि पर रह रहे हैं । ऐसी बस्तियों में सांसद निधि, विधायक निधि, नगर विकास निधि, वित्त आयोग की निधि, केंद्र सरकार की सहायता निधि आदि से इन बस्तियों में करोड़ों रुपए के काम हुए हैं और हो रहे हैं – सड़कें बनी हैं, नाले-नालियां बनी हैं, बिजली लगी है, पानी की टंकियां बनी हैं, नल लगे हैं जिनसे पेयजल मिल रहा है, आंगनबाड़ी और स्कूल बने हैं, सफाई हो रही है अन्य सुविधाएं सरकार की निधि से दी जा रही हैं तब उन्हें जमीन का पट्टा या मालिकाना हक क्यों नहीं दिया जा रहा है ? नगर निगम/ नगर पालिका /नगर पंचायत/ ग्राम पंचायत द्वारा घरों के होल्डिंग्स नंबर दिए गए हैं फिर मालिकाना हक क्यों नहीं ? जबकि ऐसा होने से सरकार को भी राजस्व की प्राप्ति होगी, जनता को फायदा होगा । और जिस काम से सरकार और जनता दोनों को फायदा है वह काम सरकार क्यों नहीं करती है ? हालांकि पूर्व में यह काम इंदौर शहर में किया गया है तब मुरैना जिले में क्यों नहीं ? मेरा मानना है यदि सरकार ऐसे नहीं मानती है तो जनता को चाहिए कि 30 वर्षों से अधिक के अपने प्रतिकूल कब्जे के आधार पर न्यायालय के माध्यम से अपना हक अधिकार हासिल करना चाहिए । माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा “रविंद्र कौर ग्रेवाल बनाम मनजीत कौर” के मामले में दिनांक 7-8-2019 के अपने निर्णय द्वारा साफ कर दिया है कि कब्जेदार अपने कब्जे की सुरक्षा के लिए स्थाई निषेधाज्ञा/स्वत्व का दावा वादी के रूप में ला सकता है । जबकि पूर्व में यह व्यवस्था कब्जेदार को प्रतिवादी के रूप में सक्षम बनाती थी यानी तलवार के रूप में नहीं ढाल के रूप में । इतिहास के दस्तावेजीकरण में देखें तो प्रतिकूल कब्जा कानून की एक बहुत पुरानी अवधारणा है । ईसापूर्व लगभग 2000 वर्ष पूर्व हम्मूराबी की संहिता में प्रतिकूल कब्जे की अवधारणा मिलती है जिसमें उपयोगितावाद की अवधारणा दी गई है और कहा गया है कि यदि कोई अपना घर बगीचा 3 वर्षों के लिए छोड़ देता है तो उपयोगकर्ता उसका मालिक होगा क्योंकि जिसके पास भूमि का कब्जा है वह समाज के लिए अंतिम लाभ का कुछ उत्पादन करता है । और तब से प्रतिकूल कब्जा एक कानून के एक भाग के रूप में आज तक बना हुआ है । और संघ तथा राज्य सरकारों द्वारा 1660 में अधिनियम द्वारा सामंती व्यवस्था को समाप्त कर स्वामित्व की अवधारणा को स्थापित किया हुआ है तब इन गरीब बस्तियों के रहवरों को मालकाना हक़ क्यों नहीं ? यह सरकार का दोहरा चरित्र है, यह किसी प्रकार सरकार का लोकतंत्रात्मक रूप नहीं कहा जा सकता है और प्रतिकूल कब्जे का दावा या बेदखली का दावा निर्विवाद रूप से भारतीय परिसीमा अधिनियम 1963 की धारा 64 एवं 65 से शासित होता है और अब चूंकि सरकार द्वारा अंतर्गत धारा 64 कार्यवाही नहीं की गई है तब 30 वर्षों की मियाद पश्चात अंतर्गत धारा 65 सरकार कब्जा प्राप्त करने से प्रतिबंधित है । अब अपने हक अधिकार के लिए आवाज उठनी ही चाहिए । पी एल शाक्य जौरा।
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