आइये एक बार, रामायण को धर्मग्रन्थ की जगह, साहित्य के नजरिये से देखा जाये। एक रचना जो वाल्मिकी जैसे किसी हाई लेवल के प्ले राइटर ने लिखी हो।
नाम रामायण है, राम की गाथा। राम ही मुख्य किरदार हैं। स्टोरी का मेन प्लॉट है कि राज्य से निष्काषित राजकुमार वन में भेज दिया जाता है। दीन हीन, वक्त काट रहा है, कि उसकी पत्नी का हरण होता है।
वह व्यक्ति, वनवासियो की एक अनगढ़ सेना बनाता है। दौर के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य पर हमला कर नेस्तनाबूद करता है, अपनी पत्नी, अपना प्रेम छुड़ा लाता है।
वापस लौटकर राज्य संभालता है। वाल्मीकि का लेखन यहां ” लिव्ड हैपीली एवर आफ्टर” के नोशन पर खत्म होता है।
इस स्टोरी में रोमांस है, एक्शन है, संगठित सूक्ष्म की विशाल पर विजय है।स्टोरी अपने आपमे परीपूर्ण है। इसमे लक्ष्मण की जरूरत क्या है??
लक्ष्मण!!!
उसे वनवास तो नही हुआ। उसे राजा नही बनना। रावण से उसे निजी बैर नही। पर वाल्मीकि हर क्षण राम के साथ रखते हैं।
वह शार्ट टेम्पर्ड है। वह शबरी को हीनता से देखता है। वह मरते हुए रावण के पास जाकर, विजय के घमंड में चूर होकर ज्ञान मांगता है।
उसी ने क्रुध्दता में शूर्पणखा के नाक कान काटकर, आने वाले डिजास्टर के बीज बोए थे । वही वो मेघनाद की शक्ति से घायल हो, रामसेना का मोरेल डाउन करता है।
अब पढ़ते जाइये रामायण, और लक्ष्मण के होने का महत्व समझिये।
लक्ष्मण वह है, जो उसी वक्त राम भी हो सकते थे। मगर नही होते, क्योकि राम ऐसे नही होते। राम को ऐसा नही होना चाहिए।
लक्ष्मण, वाल्मीकि का, याने लेखक का, स्क्रिप्ट राइटर का.. पाठक को बताने का तरीका है, कि मेन कैरेक्टर राम का, उसी स्थिति में अल्टरनेट रिएक्शन क्या हो सकता था।
तो जो-जो राम को नही होना है,वे लक्ष्मण के जरिये बताते हैं। गुस्सा नही, भय नही, घृणा नही, बेवजह रिस्क नही, अहंकार नही। अनावश्यक प्रोवोकेशन, शांति भंग नही।
सम्भव है, उस क्षण ये भावनाएं, जायज लगती हों, पर करना नही है। तो वाल्मीकि लक्ष्मण से करवाते हैं, फिर राम से सुधरवाते हैं, और पाठक को बताते हैं कि एक राम को कैसा सोचना है।
तो लक्ष्मण राम के वनवास पर क्रुद्ध हैं, उन्हें होना चाहिए। वो तख्तापलट कर राम को सिंहासन पर बिठाने का प्रपोजल देते हैं, जायज है। लेकिन राम पित्रादेश को शांति से स्वीकारते हैं, वो वन जाते हैं।
लक्ष्मण सेना लेकर आते भरत को, आक्रमण की शंका से देखते हैं। शंका जायज है। पर राम तो शंका नही चुनते, वो सेल्फ कॉन्फिडेंट हैं। ही नोज, कि हमला हुआ भी, तो उनके पास दिव्यास्त्र हैं। राम सेल्फ एश्योर्ड हैं, सो बगैर पैनिक हुए, भरत की अगवानी के लिये, अपने साथियों को भेजते हैं।
लक्ष्मण शिव धनुष टूटने पर आए परशुराम से बहस करते हैं। बकवासी बूढ़े से विवाद जायज है। लेकिन राम शांत हैं। वो उलाहना प्रेम से सुनते हैं। आखिर परशुराम को नम्रता से जीतते हैं।
शबरी के जूठे बेर राम इनकार कर सकते थे। वाल्मीकि यह बात लक्ष्मण के जरिये बताते है। वाल्मीकि शीलवान मनुष्य का गुण बताते हैं। मानव मानव में भेद नही, ऊंचा नीचा कोई नही। प्रेम बड़ा है, शबरी का समर्पण बड़ा है। उसकी इज्जत होनी चाहिए।
लेकिन लक्ष्मण जूठे बेर नही खाते। फेंक देते हैं। वो बीज, आगे संजीवनी बनते है, तो वक्त की मजबूरी में लक्ष्मण को, वही बीज अपने बदन पर लेप करना पड़ता है।
रावण के पास, राम का दूत बनने के लिए, शांति प्रस्ताव के लिए सबसे उपयुक्त उनका भाई है, पर उन्हें भेजा नही जाता। कोई वानर सलेक्ट होता है। वाल्मीकि का संदेश समझिये।
वाल्मीकि बता रहे हैं कि जीत का अहंकार न करो। हारे हुए की भी इज्जत होनी चाहिए। वे राम से कहलवाते हैं- लक्ष्मण, रावण से ज्ञान लेकर आओ। पैरों के पास, सर झुकाकर, नम्रता से, गुरु का सम्मान देते हुए पूछना। विजेता की अकड़ के साथ नही।
साहित्यकार इस तरह चरित्र चित्रण करते हैं। सन्देश देते हैं, समाज को कुछ बताते हैं। वो डिजाइन करते है एक साइड कैरक्टर, जिसके कॉन्ट्रास्ट में, मेन कैरेक्टर को उभारा जा सके।
बस इसलिए पूरे वक्त रामायण में राम के साथ में हैं। छोटे हैं, नासमझ हैं, क्रोधी हैं, अनगढ़ हैं। मगर सही गाइडेंस औऱ ज्ञानी बड़े भाई की बातों को मानकर, चलकर … कथा के अंत मे
लक्ष्मण भी प्रभु हो जाते हैं।
राम के साथ सुपूजित होते हैं।
सदियों तक…
महाभारत में सेम यही ट्रीटमेंट आपको कृष्ण और बलराम का मिलेगा। एक ठंडा विनम्र, दूरदर्शी। दूसरा कॉन्ट्रास्ट में जरा हल्का कैरेक्टर। व्यास के बलराम बड़े हैं, मगर वे छोटे की एडवाइज प्रिवेल करने देते हैं। छोटा उन्हें हर बार मना लेता है, हंसाकर कन्विंस जो कर लेता है।
राम और लक्ष्मण, कृष्ण और बलराम आपके भी भीतर हैं। इन्हें धर्मग्रंथ नही, एक बार साहित्य के नजरिये से देखिए।
इन कैरेक्टर्स को सुपर नैचुरल गॉड नही, अपने जैसा समझिये। एक ही परिस्थिति में आप जो विकल्प, जो रिस्पॉन्स चुनेंगे वह आपको राम बनाएगा, लक्ष्मण बनाएगा ..
या शायद रावण भी।
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