*वैचारिकी- मिट्टी से गाँधी गढ़ते रहें *
कल (30 जनवरी ) को शहीद दिवस है।इस दिन एक हत्यारें ने अतिवादी विचारधारा की पिस्तौल से दुनिया के सबसे बड़े मानवीय मानक महात्मा गांधी की हत्या कर दी थी। भारत ने आज़ादी पाकर आज़ादी के सबसे बड़े प्रवक्ता को मार दिया था या मर जाने दिया था। जो भी रहा हो, हम एक बार फिर पाकर भी ख़ाली हाथ हो गए थे।
इन दिनों गाँधी के बरक्स गाँधी के हत्यारों का वंदन शोर में तब्दील होता देख एक डर हर उस मन में उपजने लगा है, जिसमें गाँधी की लौ से अपने भीतर एक रोशनी ज़िंदा रख रखी है।
हालाँकि दुनिया इस सच को जान चुकी है कि गाँधी होने के क्या अर्थ हैं और वह यह भी जानती कि बारूद के ढेर पर बैठी मानव सभ्यता को बचाने का एकमात्र कवच गाँधी के नाम से भारत ने ईजाद किया है।
इसी से जुड़ा एक सहज सवाल कि भारत में अब गाँधी का क्या भविष्य है ? इस सवाल के उत्तर खोजते हुए बहुत सकारात्मक नहीं सोचा जा सकता। क्योंकि गाँधी जिन मूल्यों के लिए जाने जाते रहे हैं, उनका दमन आजकल राष्ट्रप्रेम के दायरे में आने लगा है। फिर राष्ट्र और धर्म दो ऐसी अवधारणाएँ हैं वे चाहे जिसे स्थापित कर दें ,जिसे विस्थापित कर दें या यूँ कह सकते हैं कि इन धारणाओं का उपयोग अगर सही दिशा में हो तो ये कल्याण और मुक्ति की वाहक बन जाती हैं किंतु ग़लत या स्वार्थी व्याख्या से ये विराट- विध्वंश रच सकती हैं, जैसा कि इन दिनों देखने में आ रहा है कि धर्म और राष्ट्र स्वार्थ सिद्धि की विवेचना बन चुके है। अतः गाँधी के लिए भारत में उस तरह का स्पेस ख़त्म हो रहा है , जिनकी बदौलत वे अपने जीवन काल या उसके बाद दशकों-दशक जन मानस में ज़िंदा रहे।
इसका यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि गाँधी विश्व-परिदृश्य से या भारत की जन-चेतना से पूरी तरह ग़ायब हो जाएँगे। वे रहेंगे, अपने मूल्यों और अवदान लिए उन्हें सदियाँ याद भी करेंगी किंतु भारत का बहुसंख्यक समाज उस समूची सूचना से अनभिज्ञ रह जाएगा क्योंकि एक विशेष रणनीति के तहत गाँधी के होने को नकारा जाता रहेगा..।वाचाल राजनीति और आत्म -केंद्रित समाज के लिए गाँधी को समझने का समय नहीं होगा। फिर हिंसक विचारधारा के पोषक गाँधी को अपने बारूदी उपकरणों के बरक्स लगातार खलनायक सिद्ध करते ही रहेंगे।
बहुत सम्भव है आने वाले दशकों में दुनिया गाँधी से अपनी मुक्ति का मार्ग माँग रही हो और भारत उसकी मूर्तियाँ, किताबें, चिन्ह उजाड़ रहा हो, जैसे अफगनिस्तान में बुद्ध की प्रतिमाएँ तोड़ी गई , रूस में लेनिन को नकारा गया, जबकि शेष दुनिया आज भी बुद्ध को करुणा की मूरत और लेनिन को शोषण विरुद्ध उठने वाली आवाज़ मानती है ।
यह भी हो सकता है मेरे सारे आँकलन ग़लत साबित हों, बल्कि यही चाहूँगा कि ग़लत ही साबित हों..।भारत की मिट्टी से फिर- फिर कोई गाँधी को गढ़ता रहे और गाँधी गोडसे की गोलियों को झूठा सिद्ध करते रहें..।
*रास बिहारी गौड़ *
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