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जोशीमठ : “विनाश” की ओर सरकता-दरकता ‘विकास’—— जिम्मेदार कौन ….???

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जोशीमठ : “विनाश” की ओर सरकता-दरकता ‘विकास’—— जिम्मेदार कौन ….???

(एक सामाजिक,राजनैतिक, तात्त्विक विश्लेषण)

उत्तराखंड का एक प्रमुख पर्वतीय शहर जोशीमठ आजकल बहुत ज्यादा चर्चा में है। चर्चा ये है कि लगभग एक लाख की आबादी वाला ये बड़ा सा पहाड़ी शहर अब धंस रहा है। सैकड़ों मकानों, होटलों, सड़कों, धार्मिक स्थलों आदि में बड़ी बड़ी दरारें आ गयी हैं, जगह जगह ज़मीन धंस रही है तथा उसमें से कई जगह मोटी-मोटी जलधाराएँ बह रही हैं। दिन-ब-दिन ये दरारें नई नई इमारतों को अपनी चपेट में ले रही हैं। स्थानीय निवासी दहशत में हैं तथा बड़े पैमाने पर दूसरी जगहों पर रहने के लिए जाने लगे हैं। जो लोग रह गए हैं वो भी इस कड़ाके की सर्दी में अपने घरों से बाहर टेंटों आदि में रहने को मजबूर हैं। इतनी भारी अनिश्चितता की स्थिति है कि कब क्या हो जाये, कोई नहीं जानता।

आज से लगभग 80 वर्ष पूर्व (1937 के आसपास) स्विट्ज़रलैंड से आए दो भूगर्भ वैज्ञानिकों ने इस पूरे क्षेत्र का गहन भौगोलिक अध्ययन करके एक विस्तृत रिपोर्ट लिखी थी जिसके अनुसार ये पूरा जोशीमठ क्षेत्र एक अस्थिर भू-संरचना पर स्थित है जिसके अंदर किसी ग्लैशियर से नीचे खिसक/लुढ़क कर आए बड़े बड़े पत्थर और मिट्टी की परतें हैं जो कि बेहद कच्चे और ढीले हैं। अतः, उन वैज्ञानिकों ने अपनी रिपोर्ट में ये चेतावनी भी दी थी कि इस जगह पर किसी तरह के बड़े/भारी निर्माण न किए जाएँ।

लेकिन पिछले 70 वर्षों में विभिन्न सरकारों ने इन चेतावनियों पर कोई ध्यान नहीं दिया बल्कि इस पूरे इलाके में बेतरतीब निर्माण कार्यों को निर्बाध जारी रखा गया। केवल मकान, दुकान, होटल, दफ्तर आदि ही नहीं बल्कि बड़े-बड़े हाइवे, विशालकाय बिजली परियोजनाओं का निर्माण भी शुरू कर दिया गया। स्थानीय लोगों के भारी विरोध के बावजूद ‘विकास का तांडव’ बदस्तूर जारी रहा।

उत्तराखंड का उत्तर प्रदेश से विच्छेद

वर्ष 2000 में वर्तमान उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आया। पहले ये उत्तर प्रदेश का हिस्सा हुआ करता था। 1990 के दशक में उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलितों, पिछड़ों के प्रभावशाली होने की प्रक्रिया के साथ साथ उत्तराखंड के लोगों के बीच अपना पृथक राज्य किए जाने की मांग तेजी से उठाने लगी। सन 1997 में यू॰पी॰ की तत्कालीन मायावती सरकार ने (इस मामले में कांशीराम साहब की अनिच्छा एवं घोर असहमति होने के बावजूद) उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से अलग कर नया राज्य बनाने की संस्तुति/घोषणा विधानसभा में कर दी , जिससे इस नए राज्य के निर्माण की संवैधानिक प्रक्रिया शुरू हो गयी जो कि 9 नवंबर 2000 को जा कर पूरी हुई।

उत्तराखंड की सामाजिक व्यवस्था

उत्तराखंड का राजनैतिक स्वरूप जानने से पहले इसका सामाजिक स्वरूप समझ लेना आवश्यक है। उत्तराखंड की वर्तमान कुल आबादी लगभग एक करोड़ है। कुल आबादी में ब्राह्मण जाति लगभग 27% तथा राजपूत/ठाकुर जाति लगभग 36 % संख्या में है। अर्थात दो तिहाई आबादी इन्हीं दो प्रभावशाली एवं प्रभुत्वशाली सामाजिक वर्गों की है। इनके अतिरिक्त 16-16% आबादी दलित व पिछड़ी जातियों की है। बाकी आबादी (लगभग 4 से 5%) आदिवासी, मुस्लिम व सिख समुदाय की है और ये आबादी भी पर्वतीय क्षेत्रों में नहीं बल्कि हरिद्वार आदि मैदानी/तराई क्षेत्रों में ही सीमित है। ।

उपरोक्त आंकड़े स्पष्ट तौर पर इशारा करते हैं कि (1) उत्तराखंड देश का एकमात्र ऐसा राज्य है जिसमें ब्राह्मण जाति के लोग सर्वाधिक संख्या (27%) में हैं। (2) राजपूतों (36%) के साथ मिलकर ऐसा स्पष्ट राजनैतिक समीकरण बनता है कि इन दोनों जातियों के अतिरिक्त किसी अन्य जाति के व्यक्ति का मुख्यमंत्री बन पाना लगभग असंभव है। सन 2000 के बाद, चाहे भाजपा या काँग्रेस किसी भी पार्टी की सरकार रही हो, मुख्यमंत्री इन्हीं दो जातियों में से ही कोई व्यक्ति बना है। इसके पहले, अगर 1990 के दशक के कुछ साल छोड़ दिये जाएँ तो अविभाजित उत्तर प्रदेश में भी 1952 से 1989 तक (लगभग 40 वर्ष) अधिकांशतः इन्हीं दोनों जातियों के मुख्यमंत्री रहे। जाहिर है कि इन्हीं कारणों से पूरी शासन व पूरी प्रशासन व्यवस्था पर इन्हीं दोनों जातियों का लगभग एकाधिकार/वर्चस्व रहा है। अगर इसके साथ में हम पिछले 20-22 वर्षों की (उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद) केंद्र की राजनीति पर भी नज़र डालें तो केंद्र में भी भाजपा व काँग्रेस इन्हीं दोनों (ब्राह्मण-राजपूत प्रभुत्व वाली) पार्टियों ने ही देश में राज किया है। (1999-2004 भाजपा, 2004-2014 काँग्रेस, 2014 से 2023/24 तक भाजपा)।

खतरे में धर्म…?
हिंदु धर्मावलम्बियों की मान्यताओं के अनुसार जोशीमठ उनका एक प्रमुख धार्मिक स्थान भी है जहां उनके शीर्षस्थ धर्मगुरु आदि-शंकराचार्य ने तपस्या की थी। इसी जगह एक पुराना “वृक्ष” आज भी मौजूद है जिसके नीचे (प्रचलित मान्यता के अनुसार) शंकराचार्य ने तपस्या की थी। सोशल मीडिया पर तमाम ऐसे वीडियो चल रहे हैं जिनमें स्थानीय निवासियों द्वारा ये बताया जा रहा है कि यह “वृक्ष” तथा इसके आस पास की इमारतें, मंदिर इत्यादि बड़ी बड़ी दरारों और जमीन धसकने के कारण कभी भी ढह सकते हैं। अगर पूरी तरह न भी ढहे, तो भी (भू-वैज्ञानिकों के अनुसार) ये पूरा इलाका अब किसी भी हालत में बचाया नहीं जा सकता। इसे अब छोडना ही पड़ेगा।
हिन्दू धर्म के वो तमाम ठेकेदार/झंडाबरदार जो ‘धर्म’ की आग में अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने का धंधा पिछले कई दशकों से जारी रखे हुये हैं, उनके मुंह पर ये सब (घटनाएं) एक करारा तमाचा है। गरीबो, बेसहारा लोगों की छोटी-छोटी झोंपड़ियों, ‘अवैध’ मकानों आदि पर बेरहमी से बुलडोजर चलाने वालों के लिए जोशीमठ एक “कुदरती सबक” बनकर आया है, इसकी एक हल्की सी उम्मीद तो की ही जा सकती है।

विनाशकाले विपरीत बुद्धि

वैज्ञानिकों की चेतावनियों को नज़रअंदाज़ करके तेजी से बनाए जा रहे चारधाम हाइवे परियोजना, विशाल पन-बिजलीघर परियोजना आदि बड़े बड़े निर्माणों के कारण अब इस पूरे इलाके की धरती खोखली व कमजोर हो चुकी है तथा आने वाले समय में स्थिति और ज्यादा, तथा और ज्यादा तेजी से बिगड़ेगी।

भारत-चीन सीमा तक पहुँचने (माना बॉर्डर) वाले मुख्य मार्ग पर स्थित तथा रणनीतिक तौर पर बेहद महत्वपूर्ण जोशीमठ शहर अब नालायक, भ्रष्ट, संवेदनहीन व अदूरदर्शी शासक वर्ग की “अतृप्त हवस” व क्षुद्रता की भेंट चढ़ चुका है।

ऐसा लगता है कि, जोशीमठ के इतिहास पर अब “पूर्णविराम” लगने ही वाला है।

यहाँ यह बात समझना भी बेहद ज़रूरी है कि, कोई ये न समझे कि जोशीमठ की समस्या केवल जोशीमठ की ही समस्या है। अगर तत्काल प्रभावी उपाय न किए गए तो बहुत आशंका है कि अगर कहीं जोशीमठ की ज़मीन ज्यादा खिसक/दरक गयी तो पास ही बहने वाली अलकनंदा नदी, धौलीगंगा तथा अन्य छोटी-बड़ी जलधाराओं का मार्ग अवरुद्ध भी हो सकता है जिसके व्यापक भौगोलिक, पर्यावरणीय, सामाजिक व आर्थिक दुष्परिणाम होंगे (शायद जिसकी कल्पना कर पाना भी आज मुमकिन न हो) तब ये समस्या मात्र जोशीमठ नहीं बल्कि पूरे उत्तराखंड, या संभव है, पूरे उत्तर भारत को अपनी भयावह चपेट में ले ले। प्रकृति के साथ इतने लंबे समय तक के इस खिलवाड़ का ये बुरा अंजाम हो सकता है।

सरकार/राजनेताओं को चाहिए कि भू-वैज्ञानिकों/विशेषज्ञों के साथ राय-मश्वरा करके तुरंत इस गंभीर समस्या का कोई हल निकाले। पिछले कुछ हफ्तों में उत्तर भारत के कई हिस्सों में भूकंप के हल्के-मध्यम झटके भी महसूस किए जा रहे हैं। ऐसे गंभीर हालात में अगर अब कोई तीव्र भूकंप आ जाये तो स्थिति एकदम से काबू से बाहर हो सकती है जिस पर नियंत्रण पाना फिर सरकार, प्रशासन के बस में भी नहीं रह जाएगा। वैसे भी ये पूरा इलाका भूकंप आदि की दृष्टि से “जोन-5” श्रेणी में आता है जो कि सबसे अधिक संवेदनशील और खतरनाक माना जाता है।

जोशीमठ का दोषी कौन…..??

यहाँ इस परिप्रेक्ष्य में एक तात्विक, नैतिक प्रश्न ये भी है कि अब ऐसी स्थिति में जोशीमठ या उत्तराखंड के निवासी वर्तमान हालात के लिए किसे जिम्मेदार ठहरायेंगे….? “अपनी” इन दोनों पार्टियों (भाजपा/काँग्रेस) को, अपने “सजातीय” नेताओं को अथवा….. बाबर, अकबर, औरंगजेब, अंग्रेजों या फिर अंबेडकर को…?? वैसे, उत्तराखंड की प्रशासनिक व्यवस्था में विशेषकर उच्च एवं “नीति-निर्धारक” पदों पर ‘आरक्षण वाले” समाज की उपस्थिति हमेशा से लगभग नगण्य ही रही है। ऐसे में इस “महा-आपदा” का ठीकरा किसके सिर पर फोड़ना ठीक रहेगा?
ज़रा सोचिए…..!

संक्षेप में, जोशीमठ की ये जो दुर्दशा (तमाम वैज्ञा9निक पूर्वानुमानों, चेतावनियों के बावजूद) आज देखने को मिल रही है ये उन्हीं लोगों की “देन” है जो इनके ‘धर्मयोद्धा’ बने हुये हैं। वैसे भी आज जो जोशीमठ में देखने को मिल रहा है विशेषज्ञो के अनुसार, देर-सवेर पूरे उत्तराखंड में इसी तरह के हालात पैदा हो सकते हैं।

अपने क्षुद्र राजनैतिक-व्यक्तिगत एजेंडे में लिप्त ऐसे तमाम शासक/नेता, ऐसे शासकों के हरेक सही-गलत फैसले पर आँख मूँद कर मोहर लगाती हमारी अंधी/काणी न्यायपालिका तथा लालच और भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबी प्रशासनिक व्यवस्था इस आपदा के लिए समान तौर पर जिम्मेदार हैं। अब देखना ये है कि क्या बिगड़े हालात को संभालने के लिए कोई ईमानदार और ठोस पहल की जाएगी या फिर (हमेशा ही की तरह) ‘पुनर्वास और पुनर्विकास’ के नाम पर करोड़ों-अरबों की बंदरबाँट का सिलसिला फिर शुरू कर दिया जाएगा।

जोशीमठ केवल एक खतरे की घंटी ही नहीं, बल्कि इस देश की शासन-प्रशासन व्यवस्था के लिए एक “आईना” भी है। लेकिन आईना भी सिर्फ शर्म वालों के लिए ही थोड़ा-बहुत फायदेमंद है।

…….बाकी बेशर्म और धूर्त तो हमेशा “आपदा में अवसर” की ही तलाश में रहते हैं।

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प्रमोद कुरील (पूर्व सांसद –राज्य सभा)
राष्ट्रीय अध्यक्ष : बहुजन नैशनल पार्टी (B.N.P.)
नयी दिल्ली।
11-01-2023

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