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समान नागरिक संहिता : मुस्लिम समाज अधिक जागरूक

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समान नागरिक संहिता : मुस्लिम समाज अधिक जागरूक

समान नागरिक संहिता को लेकर विधि आयोग द्वारा समाज के विभिन्न वर्गों से आपत्तियां और सुझाव भेजने की अपील की गई थी । कल उसकी अंतिम तिथि तक विभिन्न व्यक्तियों और धार्मिक संगठनों के अलावा अन्य संस्थाओं से 60 लाख सुझाव आने के बाद अंतिम तिथि 28 जुलाई कर दी गई है।

ऐसा क्यों किया गया इसका कारण तो स्पष्ट नहीं हुआ लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार किसी को ये कहने का अवसर नहीं देना चाहती कि उसे अपनी बात रखने का मौका नहीं मिला। गौरतलब है 2018 में इस पर मात्र 76 हजार सुझाव आये थे। भारत के अलावा कैनेडा , ब्रिटेन और खाड़ी देशों से भी बड़ी संख्या में सुझाव और आपत्तियां प्राप्त होने से साबित हो गया कि इस मुद्दे पर विदेशों में रहने वाले भारतीयों के मन में भी काफी उत्सुकता है। प्राप्त जानकारी के अनुसार विधि आयोग को मिले सुझाव और आपत्तियों में मुस्लिम संगठनों की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा रही क्योंकि समान नागरिकता संहिता का सबसे ज्यादा प्रभाव उन्हीं पर पड़ने की संभावना है। हालांकि , जैसी चर्चा है उसके अनुसार हिंदू , जैन , सिख समुदायों पर भी कुछ असर पड़ेगा जिसे लेकर प्रतिक्रियाएं आई भी हैं। आदिवासी समुदाय को तो नई संहिता से बाहर रखने की बात भी कही गई है।

लेकिन ज्यादतार मामलों में मुस्लिम समाज के पारिवारिक और सामाजिक रीति – रिवाजों में ही चूंकि बदलाव की संभावना है इसलिए उसकी सक्रियता लाजमी है । उस दृष्टि से हिंदुओं के लिए ये शोचनीय स्थिति है जिनमें से अधिकतर चाहते तो ये हैं कि समान नागरिक संहिता लागू हो किंतु जितनी जागरूकता और सक्रियता मुस्लिम समुदाय प्रदर्शित करता है उतनी हिंदुओं में नहीं पाई जाती । हालांकि धार्मिक मामलों में जैन और सिख समुदाय भी काफी संगठित और मुखर है किंतु मुसलमानों में इस्लाम और उससे जुड़ी परंपराओं के प्रति कुछ ज्यादा ही लगाव है। समान नागरिक संहिता जैसे मसले पर जिस तत्परता से मुस्लिम धर्म गुरु , संगठन और राजनीतिक नेता सामने आए वह इसका प्रमाण है। 14 जुलाई तक 60 लाख सुझाव और आपत्तियां आने के बाद विधि आयोग द्वारा अंतिम तिथि बढ़ाकर 28 जुलाई तक बढ़ाए जाने से ये संकेत मिला है कि संसद के मानसून सत्र में समान नागरिक संहिता का विधेयक प्रस्तुत करने का इरादा केंद्र सरकार द्वारा टाल दिया गया है।

पहले ये कहा जा रहा था कि इसके पीछे भाजपा की ये रणनीति है है कि म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव के पूर्व समान नागरिक संहिता का विधेयक संसद में पारित करवा लिया जावे । यहां तक कि जबसे प्रधानमंत्री द्वारा इसकी चर्चा छेड़ी गई तभी से इस पर खूब बहस चल रही है। वहीं मुस्लिम समाज में इसको लेकर नाराजगी के साथ भय भी देखा जा रहा है । इसके पीछे मुल्ला – मौलवियों की भूमिका ज्यादा है जिन्हें इस बात का अंदेशा है कि उनकी पूछ – परख घट जाएगी। मुस्लिम समाज के लोग शरीयत से बंधे होने के कारण छोटी – छोटी बातों और विवादों के हल के लिए मौलवियों की शरण में आते हैं। विशेष रूप से विवाह और तलाक जैसे विषयों पर वैसा करना उनकी मजबूरी है । समान नागरिक संहिता ऐसे मामलों में चूंकि बड़े बदलाव का कारण बनेगी लिहाजा पुरुष वर्ग के साथ ही मौलवियों में भी घबराहट है और इसीलिए उनकी आपत्तियों की संख्या ज्यादा है।

महत्वपूर्ण बात ये है कि प्रस्तावित संहिता का प्रारूप सामने नहीं आने से तरह – तरह की अफवाहें भी फैलाई जा रही हैं। मसलन मुस्लिमों को विवाह के समय फेरे लगाने पड़ेंगे और अंतिम संस्कार अग्नि पर होगा न कि दफनाकर। यद्यपि अनेक सर्वे ये बता रहे हैं कि मुस्लिम महिलाओं में इस बात को लेकर काफी खुशी है कि समान नागरिक संहिता उनको तलाक और पारिवारिक संपत्ति में हिस्से जैसे अनेक अधिकार देगी । 28 जुलाई तक आने वाले सुझाव और आपत्तियों का अवलोकन करने में लंबा समय लगने की बात पर ये भी कहा जा रहा है कि भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व इसको जल्दबाजी में लागू करने के पक्ष में नहीं है । उसका सोचना है लोकसभा चुनाव में इसे बड़ा मुद्दा बनाने से ज्यादा लाभ होगा। हालांकि जिन राज्यों में निकट भविष्य में चुनाव हैं उनमें भी समान नागरिक संहिता की चर्चा तो है। विधि आयोग जो रिपोर्ट बनाएगा वह निश्चित तौर पर काफी निर्णायक होगी। इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा लाभ ये हुआ कि शाहीन बाग जैसा तमाशा दोहराने के इच्छुक लोगों को शरारत का मौका नहीं मिला।

  • रवीन्द्र वाजपेयी
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