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इस्राइल बनाम हमास युद्ध : ‘इक आग का दरिया है और एक वास्तविक सच्चाई जिससे पूरी दुनिया ने मुंह मोड़ रखा है भारत भी शामिल है उसमें

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इस्राइल बनाम हमास युद्ध : ‘इक आग का दरिया है और…..?’

   आगे बढ़ने से पहले आइये कुछ खास “तथ्यों” को जान-समझ लें.... 
  • पिछले 15 वर्षों में (सन 2008 से लेकर अब तक) इस्राइली सेना द्वारा एक लाख पचास हज़ार (1.50 लाख) से अधिक फिलिस्तीनियों को मारा जा चुका है जिसमें लगभग 33 हज़ार छोटे बच्चे (नवजात से 12 वर्ष तक की उम्र के) थे।
  • लगभग 23 लाख फिलिस्तीनी जो कि इस्राइल के पश्चिमी तट पर 42 किमी लंबे और औसतन 6 से 12 किलोमीटर चौड़े भूभाग (गाज़ा) पर अमानवीय हालत में रह रहे हैं इसे दुनिया की सबसे बड़ी “खुली जेल” कहा जाता है। ये पूरा इलाका तीन तरफ से इस्राइल से घिरा है तथा इसके पश्चिम में समुद्री तट पर भी इस्राइल का पूरा कब्जा/पहरा है।
  • ज़मीन के इस छोटे से हिस्से पर रहने को मजबूर ये 23 लाख फिलिस्तीनी नागरिक बिना मूलभूत मानवीय सुविधाओं जैसे पीने का साफ पानी, स्वास्थ्य सेवाएँ, शिक्षा आदि से दशकों से महरूम हैं। इस्राइली सरकार के दशकों से जारी अनवरत दमन के चलते ये पूरा इलाका भयंकर बीमारियों, भुखमरी, बेरोजगारी तथा अन्य कई गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है। तमाम अंतर्राष्ट्रीय संगठन जैसे संयुक्त राष्ट्र, अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय आदि इस ओर से आँखें मूँदे बैठे है। इस्राइली सरकार द्वारा दशकों से जारी इस “अदृश्य नरसंहार” की तरफ किसी भी बड़े ऐसे वैश्विक संगठन को ध्यान देने की कभी ज़रूरत महसूस नहीं हुयी क्योंकि ये सभी संगठन अमेरिका, यूरोप की ताकतवर सरकारों के इशारे पर चलने वाले संगठन हैं।

किसी भी देशी-विदेशी मीडिया ने कभी इस बात का खुलासा करने की जहमत नहीं उठाई है कि पिछले 5 दशकों में इस्राइल ने, जो कि सैन्य ताकत के मामले में फिलिस्तीन से कम से कम सौ गुना ज्यादा ताकतवर है (जैसे भारत के सामने भूटान या नेपाल हो), फिलिस्तीन के ऊपर तीन सौ से अधिक बार हमला किया है।

  • लगभग 5 हज़ार से अधिक फिलिस्तीनी राजनैतिक कार्यकर्ता/नेता इस्राइल द्वारा पिछले कई वर्षों से जबरन जेल में ठूंस कर रखे गए हैं, सिर्फ इसलिए कि वे अपने फिलिस्तीनी नागरिकों के लिए मूलभूत सुविधाएं तथा नागरिक अधिकारों की मांग कर रहे थे। दुनिया भर में लोकतन्त्र व मानवाधिकारों के नाम पर ढिंढोरा पीटने वाली अमरीका, यूरोप के कई देशों की सरकारें ऐसे जघन्य अत्याचार पर कई दशकों से न केवल चुप्पी बनाए हुये हैं बल्कि खुल कर इस्राइल के पक्ष में खड़े हैं।

यूरोप के कई देशों के मीडिया के काफी बड़े हिस्से में ऐसी खबरें अक्सर आती रहती हैं। वहाँ के कई बड़े नेता वहाँ की संसद में तथा बाहर भी इन फिलिस्तीनी नेताओं तथा जनता पर होने वाले अत्याचार के गंभीर मुद्दे को उठाते भी रहते हैं।

लेकिन, क्या भारत के किसी भी अखबार/चैनल में किसी ने ऐसी खबरें पढ़ीं/देखीं हैं……?????
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दुनिया का मध्य-पूर्वी इलाका एक बार फिर धधक रहा है। इस्राइल में हाल में हुये (‘आतंकी’….???) हमले में कई सौ इस्राइली नागरिक मारे गए हैं तथा सैंकड़ों अन्य घायल हुये हैं। इस्राइल की स्थापना के बाद पहली बार इतना बड़ा हमला इस्राइल की ज़मीन पर किया गया है। ये हमला फिलिस्तीनी प्रतिरोध/राजनैतिक संगठन “हमास” द्वारा किया गया है। इस संगठन के लड़ाकों द्वारा गत 7 अक्तूबर को कई हज़ार रॉकेट इस्राइल की धरती पर दागे गए, जिससे वहाँ भारी नुकसान भी हुआ।

इन हमलों से स्वाभाविक तौर पर मध्य-पूर्व सहित पूरे विश्व की भू-राजनीति में भारी उथल-पुथल मच गयी है। इस्राइल के ‘शरीर व मन’ पर ऐसा जबर्दस्त हमला उसे भीतर तक झकझोर गया है।

इस्राइल की पीड़ा समझी जा सकती है।

लेकिन स्पष्ट तौर पर, पूरी दुनिया इस मामले में खतरनाक व भड़काऊ तरीके से दो भागों में बंटी हुई स्पष्ट नज़र आती है।

लेकिन इस मामले में कोई निश्चित राय बनाये जाने से पहले इस मामले/झगड़े की तह में जाना और इसकी विभिन्न पहलुओं पर गंभीर व निष्पक्ष तरीके से विचार करना ज़रूरी है।

“हमास” द्वारा इस्राइल पर अंजाम दिया गया ये हमला कितना एक “आतंकी” हमला कहा जाना चाहिए, या कितनी एक “प्रतिरोधात्मक/प्रतिशोधात्मक” कार्रवाई, ये एक बड़ी बहस का मामला है और इसके पक्ष-विपक्ष में उतने ही मजबूत तर्क दिये जा सकते हैं।

लेकिन इससे ज्यादा ज़रूरी ये बात है कि हम उन ऐतिहासिक और तात्कालिक कारणों (राजनैतिक, सामाजिक, भौगोलिक, कूटनीतिया सामरिक ) की समीक्षा करें ताकि इस दुखद व खतरनाक घटनाक्रम का दुनिया तथा विशेषकर भारत पर पड़ने वाले प्रभावों/दुष्प्रभावों के बारे में कोई सटीक आकलन किया जा सके।

(A) सबसे पहले तो ये समझ लेना ज़रूरी है कि पिछले कई दशकों में इस्राइल द्वारा फिलिस्तीनियों पर किए जाने वाले तमाम ज़ुल्म-ज़्यादतियों, युद्धपराधों (War Crimes) के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पारित सभी निंदा-प्रस्तावों को अमरीका द्वारा हमेशा “वीटो” (निषेध) किया जाता रहा है जिसके कारण न केवल इस्राइल के खिलाफ किसी भी अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई से इस्राइल का बार-बार बचाव होता रहा है बल्कि इससे इस्राइल की हिमाकत/उद्दंडता को और अधिक बढ़ावा मिलता रहा है। इस्राइल को मालूम है कि मध्य-पूर्व में अमरीकी हितों को बढ़ाने/बचाने में अमरीका को इस्राइल की बहुत ज़रूरत है इसी का फायदा उठाते हुये इस्राइल फिलिस्तीनीयों के साथ पिछले कई दशकों से मनमाने ज़ुल्म करता आ रहा है।

पिछले कई दशकों से यही खतरनाक स्थिति इस पूरे क्षेत्र में बन रही थी जो कि गत 7 अक्तूबर को बेहद विस्फोटक रूप से सामने आई है।

(B) हालांकि, यहाँ यह कहना भी ज़रूरी है कि किसी भी तरह, किसी भी पक्ष द्वारा निर्दोष नागरिकों को मारा जाना सही नहीं ठहराया जा सकता, चाहे वो हमास द्वारा हो या इस्राइली सेना द्वारा। लेकिन साथ ही साथ, यहाँ ये जानना-समझना भी ज़रूरी है कि इस्राइली समाज (मुख्यतः यहूदी धर्म मानने वाले) का एक काफी बड़ा वर्ग इस्राइली सरकार की इन फिलिस्तीनी विरोधी दमनात्मक कृत्यों का बहुत मुखर विरोधी है। इनमें वहाँ के बुद्धिजीवी, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, आम नागरिक और यहाँ तक कि वहाँ कि सेना के कई (वर्तमान एवं पूर्व) कर्मी भी शामिल हैं।

यहाँ यह जानना भी ज़रूरी है कि पिछले कई महीनों से इस्राइल की आम जनता लाखों की संख्या में सड़कों पर उतर कर इस्राइल की वर्तमान नेतन्याहु सरकार के घोर आर्थिक भ्रष्टाचार और तानाशाही को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति के खिलाफ जबर्दस्त आक्रोशित है और सड़कों पर उतर कर जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन कर रही है। अभी कुछ हफ्ते पहले इस्राइल के सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों को कम करके उसे सरकार के अधीन लाकर तानाशाही को बढ़ावा देने वाले कानून संसद में पास कराने के विरोध में वैसे भी इस्राइल की जनता में बेहद आक्रोश है। अतः, ऐसा मान लेना कि ‘इस्राइल सरकार की हर नीति/कृत्य/कुकृत्य के पीछे वहाँ की जनता का पूरा समर्थन है’, वास्तविकता से परे है।

इस पूरे प्रकरण में अगर कोई सबसे बड़ा दोषी नज़र आता है तो वो है वैश्विक मीडिया, जो कि अपनी घोर “अमरीका-परस्ती” के चलते “झूठ को सच” और “सच को झूठ” दिखाने के खेल में लीन है। इसमें हमारा ‘अपना’ मीडिया भी बड़े स्तर पर शामिल है जिसकी फितरत अब उस “नचनिया” की तरह हो गयी है जो सिर्फ सोने की खनखनाती मोहरें देख कर ही नाचती है। यही कारण है कि इस पूरे मामले में (इस्राइल-फिलिस्तीन टकराव) में मीडिया का रुख खुले तौर पर “एकतरफा” ही रहा है। सोशल मीडिया के एक स्वतंत्र हिस्से की बात अगर छोड़ दें तो लगभग पूरा मीडिया (अखबार, चैनल आदि) सब इस्राइल के पक्ष का ही ढोल बजाने में लीन हैं। इस्राइल सरकार के पिछले 70-75 साल के आपराधिक और अमानवीय पक्ष को यही मीडिया पूरी तरह छुपा कर रखता आया है वहीं ‘विरोधी’ पक्ष (फिलिस्तीन) के बारे में फर्जी बातों को भी अक्सर कई गुना बढ़ा-चढ़ा कर पेश करता रहा है।

जैसा कि एक कहावत है कि “युद्ध के समय सबसे पहली मौत “सत्य” (Truth) की होती है….”। मीडिया के सन्दर्भ‌ मे आज ये कहावत बेहद सटीक मालूम होती है।

ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पिछले कुछ दशकों में गाज़ा पट्टी को इस्राइली सरकार द्वारा फिलिस्तीनीयों लिए एक अघोषित “औश्विट्ज़” (Auschwitz) बना कर रख दिया गया है। (“औश्विट्ज़”- जर्मन राष्ट्रपति हिटलर द्वारा यहूदियों को कैद कर उनपर अत्याचार करने और उनका सामूहिक कत्ल करने के लिए स्थापित किया गए सैंकड़ों नरसंहार केंद्र/कैंप, जिनमें लाखों यहूदी हिटलर द्वारा मार दिये गए थे)। गाज़ा पट्टी के मात्र 350 वर्ग किमी के इलाके में लगभग 23 लाख फिलिस्तीन नागरिकों को बिना मूलभूत सुविधाओं या नागरिक अधिकारों के लगभग बंधक बना कर रखा गया है। इस्राएली सरकार/सेना द्वारा उनपर पिछले कई दशकों से जो अमानवीय अत्याचार किए जा रहे हैं उनके बारे में कुछ भी कहना कम होगा। इस भयानक मानवीय त्रासदी पर पूरा मीडिया तथा अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन मुंह पर ताला लगा कर बैठे हैं क्यूंकी उनमें से अधिकांश की “फंडिंग” उन्हीं कंपनियों/पूँजीपतियों की तिजोरियों से होती हैं जो दुनियाभर में खतरनाक हथियार बेचने का “धंधा” करते हैं। कोई एक छोटा-मोटा सा युद्ध भी उनके लिए अरबों-खरबों डॉलर के फायदे का सौदा होता है। इस (इस्राइल-फिलिस्तीन) संकट के पीछे भी वही ताक़तें हैं जिनमें नेतन्याहू आदि जैसे नेता मात्र सुविधाजनक “मोहरे” (Pawns) हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध भी उन्हीं ताकतों का खेल है जिसमें लाखों लोगों की जान दांव पर लगा कर (अमरीकी) हथियार कंपनियों द्वारा भरी मुनाफा कमाने का खेल खेला जा रहा है। यूक्रेन के अब पूरी तरह “निचुड़” जाने/बर्बाद हो जाने के बाद अब उनका अगला पड़ाव मध्य पूर्व (इस्राइल- फिलिस्तीन आदि) क्षेत्र है।

इस्राइल के कब्जे में होने के कारण पूरे फिलिस्तीनी राष्ट्र (“वैस्ट बैंक” व “गाज़ा पट्टी”) के पास अपनी कोई औपचारिक सेना नहीं है। इसी कारण से इस्राइल का दबदबा/आतंक और अधिक बढ़ा हुआ है। अपनी काफी बड़ी अत्याधुनिक सेना तथा अमरीका आदि कई पश्चिमी देशों से प्राप्त अत्याधुनिक हथियारों के बल पर इस्राइल ने पूरे फिलिस्तीनी इलाकों को पूरी तरह लगभग अपने “शिकंजे” में जकड़ रखा है जिससे छूट पाना निहत्थे व कमजोर फिलिस्तीनियों के लिए लगभग नामुमकिन ही रहा है। इसी कारण से उनके कुछ युवाओं द्वारा “हमास” नामक गुरिल्ला संगठन का गठन किया गया ताकि हिंसक इस्राइली सैन्य कार्रवाइयों का जवाब दिया जा सके। जाहिर है हमास को कई अरब देशों से हथियार व धन आदि मुहैया कराये जाते हैं।

अब सवाल यही है कि क्या अपने समाज के आत्मसम्मान व व्यापक सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक-धार्मिक-सांस्कृतिक हितों की रक्षा करने वाले लड़ाकों को क्या केवल इतनी आसानी से ‘आतंकवादी’ कह कर उनके अस्तित्व, उनके विचार व सामाजिक-राजनैतिक उद्देश्य को नकार सकते हैं…..?
शायद नहीं…..!!

इस पूरे प्रकरण में अमरीकी सरकार का दोगला/दोतरफा रवैया भी बहुत हद तक जिम्मेदार है। एक तरफ तो अमरीकी सेना यूक्रेन-रूस के युद्ध में यूक्रेन को इसलिए अरबों डॉलर की ‘सहायता’ दे रही है कि उस के कई क्षेत्रों पर रूस ने ‘जबरन कब्जा’ कर लिया है। दूसरी तरफ अमरीकी सरकार तथा कई अन्य पश्चिमी देश फिलिस्तीनियों की ज़मीन पर जबरन कब्जा करके बैठे इस्राइल को अरबों डॉलर के हथियार, धन तथा अन्य सहायता दे रहे है। अमरीका की ये दोहरी/दोगली नीति इस पूरे क्षेत्र में अस्थिरता व अशांति को बढ़ावा दे रही है। कई राजनैतिक विश्लेषकों का ये भी मानना है कि अगर इस स्थिति पर तत्काल काबू नहीं पाया गया तो बात तीसरे विश्व युद्ध तक भी पहुँच सकती है जिससे पूरी मानवता के अस्तित्व पर ही खतरा छा जाएगा। वैसे ये सब जानते हैं कि एक देश के तौर पर इस्राइल की हैसियत अमरीका की मध्य-पूर्व (खाड़ी क्षेत्र) में एक “फौजी चौकी” (Military Outpost) के समान ही है, जिसे अमरीका के इशारों पर नाचना पड़ता है। लेकिन मौजूदा हालत में, इस्राइल की जनता पर भी भयानक त्रासदी आने की आशंका है इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता।

वैसे, कुल मिलाकर, इस्राइली प्रधानमंत्री येतन्याहू की भूमिका इस पूरे खेल में एक “खिलौने” (यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंसकी ही की तरह) से अधिक कुछ नहीं है जिन्हें उनके अपने देश के लाखों नागरिकों के भारी विरोध के बावजूद सत्ता में सिर्फ इसलिए बना कर रखा गया है ताकि अमरीकी/पूंजीवादी हितों के हिसाब से मध्य-पूर्व के क्षेत्र में दखल कायम रखा जा सके। लेकिन अब ये ये अमरीकी/पूंजीवादी खेल एक खतरनाक रूप धारण कर चुका है जिसका खामियाजा पूरे मध्य-पूर्व, या फिर, शायद पूरी दुनिया को भुगतना पड़ सकता है।

इस्राइल-फिलिस्तीन युद्ध मानवता के लिए एक खतरे की घंटी है। हमारे यहाँ हमारे ‘अपने वाले’ भी “अति-उत्साह” में इस संवेदनशील कूटनीतिक मामले में “नाली से गैस” वाली सोच के हिसाब से इस्राइल के एकतरफा समर्थन की घोषणा करके देश के लिए “कूटनीतिक” दुविधा व “सामरिक” खतरा पैदा कर चुके हैं। भुखमरी सूचकांक में दुनिया में 111 वें स्थान पर लुढ़का हुये भारत की 140 करोड़ जनता के लिए ये (संभावित) युद्ध क्या-क्या तकलीफ़ें या खतरे लेकर आएगा इसका आज अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता।

हमारे यहाँ विभिन्न सोशल मीडिया पर तैनात किए गए तमाम नारंगी “गोबर-शास्त्री” जिस उत्साह से गाज़ा के बर्बाद होने का जश्न मानते नज़र आ रहे हैं उन्हें शायद अंदाज़ा भी नहीं है कि ये आग कल इनके अपने यहाँ भी पहुँच सकती है। गाज़ा के जो नागरिक पिछले 50 से ज्यादा सालों से झेल रहे हैं उस पीड़ा या बरबादी को ये 50 दिन भी झेल पाएंगे, मुमकिन नहीं लगता।

आज इस्राइल और फिलिस्तीन के बीच में हो रहे युद्ध को रोकने की सख्त ज़रूरत है। इसमें बहुत बड़ी व महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी इस्राइल की आम जनता की बनती है जिनकी अपनी (नेतन्याहू) सरकार अपने अहंकार और युद्धोन्मान्द में गाज़ा में नरसंहार करने पर उतारू नज़र आती है।

अगर आज गाज़ा गिरेगा, तो कल इस्राइल नहीं गिरेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।आज अगर फिलिस्तीन का साथ देने के लिए अरब देश इकट्ठे होकर मोर्च खोलते हैं तो जाहिर है, इसमें इस्राइल का साथ देने के लिए अमरीका तत्काल उतरेगा। और अगर अमरीका खुल कर सामने आता है तो चीन या इसके बाद रूस भी फिलिस्तीन/अरब देशों के समर्थन में मैदान में नहीं उतरेंगे? ये अगले विश्व युद्ध की पटकथा है जो कि या तो लिखी जा चुकी है या लिखी जा सकती है। ये बात नेतन्याहू को समझ आनी चाहिए. दुनिया के सभी शांति पसंद, न्याय व मानवता समर्थक लोगों को इस ऐतिहासिक समस्या के समाधान के लिए एकजुट होना चाहिए।

इस वैश्विक “घमासान” में भारत कहाँ खड़ा होगा, इसका कुछ-कुछ इशारा तो ‘अपने वाले’ जल्दबाज़ी में कर ही चुके हैं। लेकिन, इसका भयानक खामियाजा इस देश की 140 करोड़ जनता किस-किस तरह भुगतेगी और कितनी पीढ़ियों तक भुगतेगी, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।

क्या हम अमरीका, इस्राइल, इंग्लैंड आदि (सुदूर) देशों की सैन्य ताकत के भरोसे (अपने पड़ोस के देशों) चीन, रूस, तमाम इस्लामिक/अरब देशों तथा उनके दक्षिण पूर्वी सहयोगियों (म्यांमार, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, पाकिस्तान आदि आदि) के साथ सामूहिक युद्ध (खुदा-न-खास्ता अगर ऐसा हो तो) लड़ने की ताकत रखते हैं? क्या ऐसा करना समझदारीपूर्ण निर्णय होगा। अपने मोबाइल पर युद्ध के विडियो गेम (“पबजी” आदि) खेल खेल कर उसे ही वास्तविक ‘युद्द’ समझने वाले तमाम मूर्खों या अपनी टीवी स्क्रीन पर दूसरे देशों की ज़मीन पर फटते बमों, मिसाइलों की तस्वीरें देख कर तालियाँ बजाते या उत्तेजित होते ऐसे तमाम “अल्प-बुद्धि” मूर्खों (विशेषकर “नारंगी” छाप वाले) को, ये समझना चाहिए कि असली युद्ध एक भयानक खूनी खेल होता है, मनोरंजन नहीं।

 तीसरा विश्व युद्ध समूची मानवता के लिए “मौत का फरमान” साबित होगा, ये तय है। बाकी के बारे में छोड़िए, भारत की 140 करोड़ जनता को अपनी आँखें, अपने कान और विशेषकर अपना दिमाग ठीक से खुला रखना चाहिए और कोई भी निर्णय भावावेश में नहीं, बल्कि दूरगामी परिणाम के बारे में सोच-विचार कर ही लेना चाहिए।   

अंधभक्ति अंततः किसी अंधे कुंए में ही ले जा कर धकेलती है, याद रखिए;
चाहे वो व्यक्ति हो, समाज हो या राष्ट्र हो।

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-प्रमोद कुरील (पूर्व सांसद-राज्य सभा)
राष्ट्रीय अध्यक्ष : बहुजन नैशनल पार्टी (BNP)
नयी दिल्ली।
17-10-2023

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