ईरान : विश्व पटल पर उभरता नायक
इस्राइल ने ईरान पर हमला कर दिया है और ईरान ने कई राउंड्स में पलटवार किए हैं। इस्राइल आगे की रणनीति बना रहा है। अमेरिका भी इस पूरे मामले में ‘ठंडा-गरम, ठंडा-गरम’ रवैय्या अपनाते हुये आगे की रणनीति तैयार कर रहा है।
दोनों तरफ से मिसाइलें बारिश के पानी की तरह बरस रही हैं। शहर, कस्बे, इमारतें तेजी से मलबे के ढेर में परिवर्तित होते जा रहे हैं। दोनों तरफ से मरने व घायल होने की पुष्ट-अपुष्ट खबरें चल रहीं हैं। जैसा कि सब जानते-समझते हैं कि मृतकों-घायलों की संख्या दोनों तरफ सच्चाई से बहुत कम करके दिखाई जा रहीं हैं। युद्ध में हर जगह ऐसा ही होता है।
“ट्रुथ इस द फ़र्स्ट कैजुयल्टी इन ए वार” अर्थात युद्ध में सबसे पहली मौत “सच” की ही होती है।
लेकिन युद्ध की इस विभीषिका से ज़रा हटते हुये, इस युद्ध से क्या दूरगामी सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन या प्रभाव हो रहे हैं या भविष्य में होने की उम्मीद/आशंका है, इसका आकलन करना भी ज़रूरी है।
ईरान और इस्लाम :
दुनिया के कुल मुस्लिम आबादी (लगभग 250 करोड़) में लगभग 90% सुन्नी मुसलमान हैं जबकि मात्र 10% ही शिया मुस्लिम हैं। ईरान दुनिया के मात्र दो-तीन शिया बहुल मुस्लिम देशों में से पहले नंबर पर आता है जिसकी आबादी का कुल 90 फीसदी से ज्यादा शिया मत को मानने वाले हैं। इसके अतिरिक्त इराक, अज़रबैजान, लेबनान में भी काफी बड़ी तादाद में शिया मुसलमान हैं।
शिया बनाम सुन्नी विवाद :
ऐतिहासिक तथ्य है कि इस्लाम के आखिरी नबी पैगंबर मोहम्मद साहब के देहांत के बाद उनके उत्तराधिकार को लेकर बहुत बड़ा युद्ध हुआ था जो कई सालों तक चला। उनके दामाद (अली हुसैन) को उनका असली उत्तराधिकारी मानने वाले समूह को “शिया” कहा जाता है जबकि उनके अन्य अनुयायियों में से चलने वाली “धारा” (पहले खलीफा अबु बक्र) को मानने वाले “सुन्नी” कहलाते हैं।
पिछले 1400-1500 वर्षों से चली आ रही इस्लाम की इन दोनों “धाराओं” के बीच लगातार भयंकर खून-खराबा होता रहा है। यहाँ तक कि इन दोनों समुदायों के बीच रोटी-बेटी का संबंध भी अक्सर शक/हेय की दृष्टि से देखा जाता है। इस्लाम के ‘असली उत्तराधिकारी’ (‘परिवार’ बनाम ‘शिष्य’) को लेकर दोनों समुदायों के बीच आपसी खींचतान, मनमुटाव तथा भयंकर युद्ध आदि तक आज तक होते रहे हैं। हालांकि इस्लाम के मूलभूत सिद्धांतों (एकीश्वरवाद, आखिरी नबी मोहम्मद साहब, नमाज़, रोज़ा आदि) को लेकर दोनों ही एकमत हैं।
लेकिन इस्राइल द्वारा फिलिस्तीनी (सुन्नी अरब मुस्लिम) लोगों के खिलाफ तथा अब ईरान के खिलाफ युद्ध ने एक बेहद रोचक एवं ऐतिहासिक संभावना को जन्म दे दिया है। ध्यान देने की बात है कि शिया फारसी मुसलमान ईरान “अरब” देश की श्रेणी में नहीं आता। सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक दृष्टि से वह दुनिया के अन्य मुसलमानों से कई मायनों में अलग है।
सुन्नी फिलिस्तीनियों के अधिकारों व अन्य मुद्दों को लेकर बाकी अधिकांश सुन्नी मुस्लिम देशों (सऊदी अरब, जॉर्डन, मिस्र, संयुक्त अरब अमीरात आदि आदि) का रवैय्या पिछले दशकों में अब तक काफी हद तक ढुलमुल (अधिकांशतः अमरीका परस्त) रहा है। लेकिन जिस मजबूती के साथ एक शिया बहुल देश ईरान (या शिया बहुल लेबनान) ने फिलिस्तीन (विशेषकर गाज़ावासियों) के अधिकारों तथा उनके ऊपर ढाये जाने वाले ज़ुल्मों को लेकर आततायी इस्राइल का खुले आम विरोध किया है उसने, ऐसा लगता है, कि पिछले डेढ़ हज़ार सालों के इस इस्लाम के अंदरूनी “सामाजिक-राजनैतिक घाव” (शिया-सुन्नी विवाद) पर ऐतिहासिक मरहम लगाने का काम किया है।
अधिकांश अरबी सुन्नी मुसलमानों (विशेकर उनकी सरकारों, राष्ट्राध्यक्षो) के डरपोक व समझौतावादी रवैये के विपरीत जिस मजबूत और बेखौफ तरीके से शिया ईरान ने इस्राइल की गुंडागर्दी व सुन्नी गाज़ावासियों के खिलाफ अत्याचारों का मुक़ाबला करने का साहस दिखाया है वो वाकई काबिले तारीफ है। ये सही है कि इसका उसे बहुत बड़ा नुकसान भी सहना पड़ा है (या आगे भी सहना पड़ सकता है)। उसके कई बड़े नेता, वैज्ञानिक, सेना के अफसर, धार्मिक नेता आदि भी इस्राइल के हमलों का निशाना बनाए जा चुके हैं। वह कई वर्षों से पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंध भी झेल रहा है। लेकिन इसके बावजूद वह एक स्वतंत्र फिलिस्तीनी देश की स्थापना की मांग तथा गाज़ा में इस्राइली ज़ुल्म-ज्यादती के खिलाफ उसका स्पष्ट व ठोस नज़रिया इस्राइल और उसके अन्य पश्चिमी सहयोगियों की नज़र में बेतरह खटक रहा हैं।
लेकिन तमाम विरोधों, साज़िशों,प्रतिबंधों के बावजूद दुनिया भर के मुस्लिम लोगों के बीच शिया ईरान ने अपनी नेतृत्व क्षमता व सिद्धान्तप्रियता का जो अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है वो दुनिया के अन्य सुन्नी मुसलमानों के लिए भी एक “नैतिकता” एवं “मानवीयता” के मूल्यों की रक्षा के लिये किसी भी हद तक जाने की ज़िद का अप्रतिम उदाहरण है।
नतीजा ये हुआ है कि आज ईरान पूरे विश्व के मुसलमानों के लिए एक सर्वश्रेष्ठ व सर्वमान्य नेता बन कर सामने आया है। सच्चे व दूरदर्शी नेतृत्व की पहचान संकट काल में ही होती है।
शिया व सुन्नी के बीच इस सैंकड़ों वर्ष की इस लंबी/गहरी खाई को पाटने का साहसिक काम ईरान ने कर दिखाया है। साथ ही साथ, रूस चीन व अन्य “पूर्वी” देशों के लिए ईरान वैश्विक स्तर पर एक महत्वपूर्ण एवं विश्वसनीय सहयोगी बन कर उभरा है।
आने वाले दिन विश्व राजनीति के लिए बेहद गंभीर व निर्णायक होंगे।
-प्रमोद कुरील (पूर्व सांसद-राज्य सभा)
राष्ट्रीय अध्यक्ष: बहुजन नैशनल पार्टी (अंबेडकर)
दिनांक: 15-06-2025
