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जाति, जातिवाद और क्रान्ति

जाति और जातिवाद दोनों में बड़ा अन्तर है। जाति एक व्यवस्था है जब कि जातिवाद उसपर आधारित एक राजनीति है। यह जाति आधारित राजनीति शोषकवर्गों द्वारा करवाई जाती है। यह जातिवाद की राजनीति शोषित पीड़ित व्यक्ति के लिए खतरनाक है। जो लोग भी जाति आधारित राजनीति कर रहे हैं। वे समाज के सबसे बड़े दुश्मन हैं। वे शोषकवर्ग की फूट डालो शासन करो की नीति के आधार पर जनता को जनता से लड़ा रहे हैं।

अम्बेडकर ने कहा था- “मुठ्ठी भर लोगों द्वारा बहुसंख्यक जनता का शोषण इस लिए संभव हो पा रहा है क्यों कि उत्पादन के संसाधनों पर समाज का मालिकाना नहीं है, केवल मुठ्ठी भर लोगों का ही मालिकाना है।”

उत्पादन के संसाधनों के बड़े-बड़े मालिक यानी कल कारखानों, खान खदानों, स्कूलों, अस्पतालों के मालिक ही शोषण कर सकते हैं, चाहे वे किसी भी जाति के हों। अम्बेडकर के अनुसार इनकी कुल संख्या 4 – 5 लाख के आस पास ही होगी। मगर जातिवादी नेता, पत्रकार और अफसर जाति के आधार पर 15/85 करके 22 करोड़ सवर्णों को दुश्मन घोषित कर देते हैं। दुश्मन की संख्या बढ़ाकर वे असली शोषकवर्ग की मदद करते हैं। इसी मदद के कारण ही जातिवादियों को शोषकवर्गों का जूठा पत्तल चाटने को मिल जाता है।

अम्बेडकर के अनुसार वास्तव में शोषण के खिलाफ लड़ना है तो मालिकाना के आधार पर दोस्त, दुश्मन तय करना पड़ेगा। मगर जातिवादी लोग अम्बेडकर का ही नाम लेकर सबसे ज्यादा जातिवाद करते हैं। जातिवादी लोग अम्बेडकर के फोटो को शिकारियों के जाल की तरह इस्तेमाल करते हैं। नीरज पटेल और शम्भू जैसे पत्रकार, रतनलाल और लक्ष्मण यादव जैसे बहुत से प्रोफेसर, कई बड़े अफसर व नेता एक सोची-समझी साजिश के तहत तरह-तरह के शब्दाडम्बर बनाते हैं, अम्बेडकर के फोटो को जाल की तरह बिछाते हैं और जनता को फँसाते हैं और उन्हें जाति के नाम पर लड़ाते हैं। फिर यही लोग बड़े क्रान्तिकारी बनते हुए कहते हैं ‘जाति के रहते क्रान्ति नहीं होगी।’

ये जातिवादी नेता हैं या पत्रकार या प्रोफेसर या अफसर लोग बड़ी मोटी चमड़ी के होते हैं। इन्हें यह ऐतिहासिक सच्चाई पता है कि जाति के रहते हम एक साथ बैठकर संगठन बनाते रहे हैं, एक साथ पढ़ते-लिखते रहे हैं, एक साथ मिलकर दुश्मनों से लड़ते भी रहे हैं, क्रान्ति भी करते रहे हैं। 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 1947 तक ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आजादी की लड़ाई, तेलंगाना सशस्त्र किसान विद्रोह, नक्सलवाड़ी सशस्त्र किसान विद्रोह, श्रीकाकुलम सशस्त्र किसान विद्रोह, भारत में हुए छिट-पुट हजारों सशस्त्र किसान विद्रोह जातियों के रहते लड़े गये हैं। नेपाल इसका ताजा उदाहरण है जहाँ जातियों के रहते क्रान्ति हो गयी। इतिहास गवाह है जातियों के कारण हम कहीं नहीं हारे हैं, बल्कि कुछ गद्दारों के कारण हम हारते रहे हैं। और जातिवाद/जातिसंघर्ष के कारण आपस में लड़ते रहे हैं जिससे दुश्मन को मजबूती मिली।

जातियों के रहते हम वर्ग संघर्ष कर सकते हैं, वर्ग संघर्षों से जाति-व्यवस्था को निष्प्रभावी बना सकते हैं मगर जातिवाद के रहते हम न संगठित हो सकते हैं न संघर्ष कर सकते हैं, न अधिकार प्राप्त कर सकते हैं। जातिवाद के चलते हम आपस में ही लड़ते रहेंगे जिसका फायदा उठाकर शोषकवर्ग हमारा हक लूटकर हमें कंगाल बनाता रहेगा।

अत: जातिवाद/जातिसंघर्ष के रहते क्रान्ति नहीं होगी, यह कहना तो सही है मगर जाति के रहते क्रान्ति नहीं होगी एक ग़लत धारणा है। वास्तव में जाति के रहते ही क्रान्ति होगी और क्रान्ति के बाद ही जाति का उन्मूलन हो पाएगा।

रजनीश भारती

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