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महाभारत के पात्रों का बिल्कुल अलग तरह से विश्लेषण शायद पहले कभी नहीं पढ़ा होगा आपने

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महाभारत का सबसे निंदनीय , अधर्मी , अन्यायी , दुराचारी पात्र दुर्योधन ( सुयोधन) और इसके ठीक उल्टा धर्म रक्षक , सदाचारी , न्यायी , सत्यवादी पांडव ।

महभारत के लेखक ने उन्हें न्यायी, धर्म रक्षक , सत्यवादी आदि कहा और हारे हुए कौरवो को पापी , दुराचारी आदि ।
पर क्या वास्तव में दुर्योधन(सुयोधन) पापी , दुराचारी , अन्यायी था ?
नहीं ! बिलकुल नहीं बल्कि कदम कदम पर छल पांडव करते रहें , अनुचित मांग पांडव रखते रहें , अनुचित तरीके से युद्ध जीता जबकि दुर्योधन(सुयोधन) हमेशा सत्य, निर्भीक और न्यायशील बना रहा ।

महाभारत से कुछ उदहारण देखिये सुयोधन के न्यायप्रियता और निर्भीकता के –

1- प्राचीन काल से यह नियम रहा है की राजा का जेष्ठ पुत्र ही राजगद्दी पर बैठता है , वही राजगद्दी का उत्तराधिकारी होता है । दशरथ के बाद राम ही राजगद्दी के उत्तराधिकारी थें।
विचित्रवीर्य के मरने के बाद जेष्ठ पुत्र होने के नाते सिर्फ धृतराष्ट्र ही उत्तराधिकारी थे हस्तिनापुर के , उनके अंधे होने के कारण पाण्डु को राज्य सौंपा गया, जबकि अंधे होने के कारण किसी को राजगद्दी से वंचित रखा गया हो ऐसा पूर्व में कोई उदहारण नहीं मिलता।यंहा धृतराष्ट्र के साथ अन्याय हुआ परन्तु संतोषी स्वभाव होने के नाते उन्होंने अपने प्रति इस अन्याय के विरुद्ध कुछ नहीं कहा ।पर पाण्डु के मरने के बाद पुन: धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर की गद्दी सौंपी गई , उनका राज्याभिषेक हुआ ।
यदि अंधेपन के कारण पहले धृतराष्ट्र को राजगद्दी के काबिल नहीं समझा गया था तो बाद में क्यों समझा गया ?
हस्तिनापुर उस समय बहुत शक्तिशाली राज्य था , एक से बढ़ के एक योद्धा थे कुरुवंश में। हर शक्तिसम्पन्न राज्य के दुश्मन होते हैं अत: हस्तिनापुर के भी थे और दुश्मनो के षड्यंत्र भी होते थे । उन्ही शत्रुओं ने अंदरुनी कमजोरियों का फायदा उठा के पाण्डु का राज्य अभिषेक करवा दिया ताकि पाण्डु और धृतराष्ट्र में फूट पड जाए और राज्य के लिए युद्ध हो या राज्य के टुकड़े हो जाए और हस्तिनापुर कमजोर हो जाए । परन्तु संतोषी स्वभाव के धृतराष्ट्र ने अपने से छोटे का राज्याभिषेक होने पर जरा सा भी विरोध नहीं किया , शायद वे शत्रुओ की चाल समझते थे ।
पाण्डु के मरने के बाद मजबूरन फिर से धृतराष्ट्र को गद्दी सौंपनी पड़ी क्यों की असली अधिकारी वही थे । यदि असली अधिकारी न होते तो युधिष्ठिर को ही गद्दी पर बिठाया जाता बाकी प्रशासन चलाने के लिए भीष्म, विदुर जैसे विद्वान् थे ही।

पर यदि युधिष्ठिर को राजगद्दी सौप दी जाती तो शत्रुओं की चाल जो की हस्तिनापुर के टुकड़े करना चाहते थे उनकी मंशा नाकामयाब हो जाती क्यों की धृतराष्ट्र तो विरोध ही नहीं करते। अत: धृतराष्ट्र को गद्दी पर बैठाया गया और कुंती पांडवो को धृतराष्ट्र के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया जिसका जरिया बना सुयोधन क्यों की वे जानते थे की सुयोधन ही असली उत्तराधिकारी है और पांडवो के मन में सुयोधन के प्रति नफ़रत पैदा की ।

2-धृतराष्ट्र की न्यायप्रियता और पाण्डुपुत्रो के प्रति अपनापन इससे ही पता चलता है की उन्हें को बिलकुल अपने पुत्रो के समान समझा , उसी शिक्षक से शिक्षा दिलवाई जिससे अपने पुत्रो को दिलवाई ।परन्तु पांडव इतने अहसानफ़रामोश और धूर्त निकले की शिक्षा पूरी होते ही अपना आधा राज्य मांगने लगे ।यदि पांडव अपने को हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी मानते तो पुरे राज्य की मांग करते न की आधे की ,पर यह उनकी धूर्तता थी और इस धूर्तता का समर्थन प्राप्त था कृष्ण का । चुकी कुंती कृष्ण की रिश्ते में बुआ थी और शादी से पहले ही गर्भवती हो चुकी थी , यह राज कृष्ण जानते थे अत: वे कुंती को इस्तेमाल करते रहें ।

सुयोधन यह जानता था की नियम अनुसार विचित्रवीर्य के बाद धृतराष्ट्र और धृतराष्ट्र के बाद उसी का हक़ है राजगद्दी पर अत: पंडवो की मांग को वह अनुचित मानता था ।
परन्तु चुकी धृतराष्ट्र एक संतोषी और शांतिप्रिय राजा थे अत: पांडवो की अनुचित मांग को भी मान के राज्य का बंटवारा कर दिया और पांडवो को आधा राज्य दे दिया ।

उस समय युद्ध और जुआ एक समान माने जाते थे , क्षत्रियो को जैसे युद्ध के लिए जाना अनिवार्य था उसी प्रकार यदि जुआ का बुलावा आये तो वँहा भी जाना अनिवार्य था । युद्ध में खून खराबे से राज्य जीता जाता था जबकि जुए में बिना खून खराबे के राज्य जीता जाता था । पांडवो ने भी यही सोचा था की वे बाकी का आधा हिस्सा जीत लेंगे इसलिए वे जुए का निमन्त्रण ठुकरा न सके ।कृष्ण जानते थे सब पर उनका तो फायदा ही था चाहे कोई भी जीतता या हारता इसलिए वे बीच में नहीं आये ।

जुए में पांडव अपनी पत्नी तक को हार गए , पर फिर भी बड़ी बेशर्मी से पांच गाँव मांगने पहुच गए ।
सुयोधन जिसने कर्ण जैसे सूत पुत्र को अंग देश दे दिया उसे पांच गाँव देने में कोई आपत्ति नहीं थी पर यदि वह पांच गाँव दे देता तो इसका अर्थ यह होता की वह गलत था । फिर पांडवो ने कृष्ण को याचक बन के नहीं अपितु अधिकारी बन के भेजा था सुयोधन के पास , कृष्ण भी यदि याचक बन के पांच गाँव मांगते तो सुयोधन दे देता पर कृष्ण धमकी देने लगे वह भी भरे दरबार में । सुयोधन जैसा वीर कैसे सहन कर सकता था अत: कृष्ण को वंहा से भगा दिया । कृष्ण इतने घमण्डी निकले की सुयोधन के घर भोजन तक नहीं किया जबकि उनकी कोई दुश्मनी नहीं थी सुयोधन से पर वे हस्तिनापुर को नेस्तनाबूत कर के अपना यदुवंश सत्ता कायम करना चाहते थे इसलिए जानबूझ के कौरव और पांडवो में सुलह नहीं होने दी ।

सुयोधन अंत तक सच्चाई के रास्ते पर रहा जबकि पांडव, कृष्ण आदि सभी कदम कदम पर छल करते रहें । सुयोधन जातिवाद नहीं मानता था उसने कर्ण को शुद्र होते हुए भी अपना मित्र बनाया और उसे राज्य सौंपा जबकि पांडवो , द्रोपदी ने कर्ण को शुद्र होने के नाते बार बार अपमानित किया ।

सुयोधन पर यह आरोप लगाया जाता है की उसने द्रोपदी का चीरहरण किया था , परन्तु यह स्वयं महाभारत में ही सिद्ध है की सुयोधन ने चीर हरण किया ही नहीं बल्कि वह तो केवल यह चाहता था की द्रोपदी राजसी वस्त्र उतार के दासी वस्त्र धारण कर ले । सुयोधन पर चीर हरण का आरोप इसलिए लगाया गया ताकि उसे बदनाम किया जा सके और जनता की सहानभूति पांडवो के साथ हो जाए ।

अंत समय में भी सुयोधन के साथ पांडवो ने छल ही किया था , कृष्ण का छल से उसकी जंघा पर प्रहार करवाना । जयद्रथ , अश्वत्थामा मारा गया कह के द्रोण को धोखे से मारना, घटोत्कच का कौरवो के शिविर में रात में हमला , कर्ण को निहत्थे मारना, आदि योद्धाओं को छल से पांडवो ने मारा था जबकि ऐसा सुयोधन ने नहीं किया ।

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